कागज, कैमरा और कंट्रोवर्सी

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‘क्या लिखूं’, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी का ये टाइटल बरबस याद आया। याद आने की वजह बने बिग बी। सरकार…

‘क्या लिखूं’, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी का ये टाइटल बरबस याद आया। याद आने की वजह बने बिग बी। सरकार बीमार पड़े। बुलेटिन व्हील पर उनका कब्जा हुआ और बोरवेल में गिरा सोनू डायनासोर के मानिंद गायब हो गया। फिर क्या था घर की बुजुर्ग बड़ी बुआ की तरह अखबारिया दोस्तों ने शुरू कर दिया प्रपंच। न्यूजलाइन मशीनों की प्लेटें अल्टर करके लेट नाइट एडीशन में छापा गया कि किस तरह टीवी के लिए न्यूक्लियर डील, सेंसेक्स और संत अलफोंजा से बड़ी खबर है शहंशाह। पहले सोचा क्या लिखूं, फिर सोचा क्यों लिखूं और दीक्षांत फैसला किया कि आखिर क्यों न लिखूं।

हर मर्तबा कांडोपोगा रील पर न्यूज इंक से छपी पाई तो सिर्फ टीवी की बुराई। कभी आरुषी, कभी प्रमोद महाजन और कभी महामशीन के बहाने…बहाने लगते हैं स्याही…स्याह करने के लिए टीवी की स्क्रीन। हमने सबसे पहले भूत कब देखा। जब अखबार में छपी मिली अब्राहम लिंकन के भूत की फोटो। धर्मेंद्र-हेमा, अमिताभ-रेखा की गॉसिप, गप्पें पहले छपती थीं। अब वही धर्मेंद्र-हेमा तब्दील हो गए हैं सैफ-करीना, रणबीर कपूर-दीपिका पादुकोण में। तब छपते थे अब भी छपते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि छपने से पहले दिख भी जाते हैं।

कौन समझाए कि कूंची और कैंची में फर्क है। एक से उकेरा जाता है और दूसरी काम आती है कतरने के। टीवी दिखता है अखबार छपता है। फर्क तो है न। गुलशन नंदा की ‘पाले खां’ नावेल रोज रात में सफा मोड़कर पढ़ते रहिए या जैकी श्राफ-फरहा खान को तीन घंटे में देख लीजिए। दोनों का अलग इंपैक्ट है काका (राजेश खन्ना) का कुर्ता हो महानायक की हेयर स्टाइल सबकुछ स्क्रीन ने किया है आम। पहले सिल्वर स्क्रीन थी अब टीवी स्क्रीन है।

टीवी प्रमोद महाजन दिखाएं तो ओवरडोज, प्रिंस पर फोन लाइन खोल दे तो टीआरपी। टीवी ने तो कभी सर्क्युलेशन पर आवाज बुलंद नहीं की। आरुषि हो या महामशीन जब छपी खूब छपी। जब बैकफुट पर आने का वक्त आया तो करीने से खुद को लेमेन कट करने के बजाए सीधे हुक कर दिया और सब मढ़ डाला कैथोड-डायोड से छनकर स्क्रीन पर आई खबरों पर। बेहिचक कह डालते हैं कि लखनऊ के फैजुल्लागंज की बाढ़ की खबर टीवी नहीं दिखाता है।

सच तो ये है कि फैजुल्लागंज को लखनऊ एडीशन में भी सातवें पन्ने पर डीप सिंगल छाप कर सब किनारे हो जाते हैं। अस्सी किलोमीटर दूर कानपुर एडिशन के तो किसी भी पन्ने पर फैजुल्ला गंज को आरएसी तो दूर वेटिंग का रिजर्वेशन तक मयस्सर नहीं होता है। कहीं नुक्कड़ पर खड़े हो जाओ तो यही सुनने को मिलता है कि टीवी तो एक ही खबर पूरे-पूरे दिन दिखाता रहता है। असल में यही काम अखबार भी करता है। सुबह छह बजे हाकर सुतली बांधकर बाउंड्री में फेंकता है और फिर अगले दिन छह बजे तक की फुर्सत। इस चौबीस घंटे में जब भी अखबार उठाओ वही खबर छपी मिलती है। मान लीजिए कि अखबार खुद एक टीवी है जहां चौबीस घंटे एक ही खबर चलती मिलती है।

सोनू से स्विच ओवर पर डपटने से अच्छा है कि प्रिंस जैसों को याद रखा जाए जो कम से कम बचाये तो जाने लगे, जेसिका, प्रियरदर्शनी मट्टू, नितीश कटारा, मंजूनाथ, अफगानिस्तान युद्ध, पुलिसिया बर्रबरता, खद्दरधारी भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर कभी तो तारीफ की जाए, जो पहले सुनी जाती थी अब तो देख भी ली गई है। जावेद अख्तर साहब की कॉन्फ्रेंस में था। मेरे हमसाए खबरनवीस ने पूछा कि ‘शोले’ जैसी फिल्में क्यों लिखी जाती हैं जिससे समाज में अपराध का सेंसेक्स बुलिश हो जाता है। तपाक से जवाब मिला कि क्या 15 अगस्त 1975 के बाद ही देश में अपराध का अगाज हुआ है। ठीक कहा जनाब ने..गलत हुआ तो टीवी ने किया..अच्छा हुआ तो मास्टहेड बदल कर अपना ही झंडा बुलंद कर डाला।

यानी…उल्टे-सीधे…सीधे-उल्टे..उनके सभी पहाड़े हैं…ताला-कुंजी भी उनकी है उनके सभी किवाड़े हैं…उनका क्या है उनकी तो उपदेशों से कट जाएगी..उनके अपने मंच सजे हैं उनके पास नगाड़े हैं।

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